रविंद्र पंवर, सोलन
'मशरूम सिटी ऑफ इंडिया' के नाम से मशहूर सोलन में मशरूम उत्पादन दम तोड़ने लगा है। देश को मशरूम से बने शाही पकवानों की सौगात देने वाले सोलन में इसकी पैदावार कम हो रही है। दुख यह कि 'खुंब नगरी' के तमगे को सहेजने में राज्य सरकारें असफल रही हैं। अब नगरी तो है लेकिन खुंब गायब हो रही है।
क्या है कारण
हिमाचल प्रदेश में मशरूम उत्पादन को कृषि कार्य घोषित न करने और इसके लिए विभागीय अनुदान सहित विपणन व्यवस्था न होने से मांग व उत्पादन में भारी अंतर आया है। इसका परिणाम है कि पहले सोलन के घर-घर में मशरूम की खेती होती थी, अब लोग हाथ खींचने लगे हैं। वर्तमान में हरियाणा अधिक उत्पादन के कारण मशरूम राज्य बनने की ओर अग्रसर है, वहां इसे कृषि कार्य घोषित किया गया है। इसके अलावा पंजाब, उत्तर प्रदेश व जम्मू-कश्मीर सहित कई राज्यों में मशरूम उत्पादन को कृषि का दर्जा प्राप्त है।
महाराजा पटियाला विदेश से लाए थे स्पॉन
सबसे पहले महाराजा पटियाला मशरूम स्पॉन (खुंब का बीज) विदेश से यहां लाए थे। उन्होंने चायल के समीप दोची स्थित अपने फार्म हाउस में मशरूम उगाना शुरू किया और बाद में इसकी सप्लाई भी की जाने लगी। इसके बाद 60 के दशक में सोलन से मशरूम को पहचान मिली और इससे बने व्यंजन गरीब की रसोई से लेकर बड़ी दावतों तक की शान बने। उस समय यहां पर एग्रीकल्चर कॉलेज में मशरूम उत्पादन की जानकारी दी जाती थी।
1997 में बनी 'मशरूम सिटी ऑफ इंडिया'
मशरूम उत्पादन के लिए सोलन का मौसम अनुकूल होने, साल में कई फसलें निकलने और इससे मिलने वाले तगड़े मुनाफे के कारण इसके प्रति लोगों का रुझान बढ़ा। एक समय वह भी आया जब सोलन के घर-घर में मशरूम उत्पादन शुरू हो गया। बाद में यहां पर मशरूम के राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र की स्थापना की गई, जिसे अब निदेशालय बना दिया गया है। सोलन में मशरूम पर हो रहे अनुसंधान व पैदावार के चलते 10 सितंबर 1997 को सोलन को 'मशरूम सिटी ऑफ इंडिया' का दर्जा मिला।
कृषि कार्य नहीं माना
1997 में केंद्र सरकार ने सभी राज्यों के विभागीय मुख्य सचिवों को मशरूम उत्पादन को कृषि कार्य की मान्यता देने के लिए पत्र लिखे थे। इस पर केवल तीन-चार राज्यों ने ही इसे कृषि कार्य के रूप में अपनाया, जबकि हिमाचल में इसे आज भी उद्योग के रूप में देखा जाता है। यहां पर किसान छोटे स्तर पर ही मशरूम उत्पादन करते हैं, जिससे वह विभागीय अनुदान व अन्य सुविधाओं से भी वंचित हैं। मशरूम प्लांट के लिए बिजली मीटर भी व्यावसायिक दर पर लगते हैं और उत्पादकों को महंगे दामों पर बीज व उपकरण खरीदने पड़ते हैं। विपणन की भी व्यवस्था नहीं है और उत्पादकों को तैयार माल बेचने का खुद इंतजाम करना पड़ता है।
उत्पादन कम मांग ज्यादा
मौजूदा समय में सोलन में प्रतिदिन लगभग चार क्विंटल मशरूम उत्पादन हो रहा है, जबकि मांग आठ क्विंटल से भी ज्यादा है। ऐसे में डिमांड पूरी करने के लिए यहां के बड़े उत्पादक बाहरी क्षेत्रों से मशरूम खरीद कर आगे सप्लाई कर रहे हैं, जबकि पहले यही उत्पादन आठ से दस क्विंटल होता था। इस व्यवसाय से जुड़े करीब सौ उत्पादकों की मांग है कि मशरूम निदेशालय सहित नौणी यूनिवर्सिटी और उद्यानिकी विभाग समय पर उन्हें बढि़या बीज उपलब्ध करवाए व खाद भी पर्याप्त मिले।
लागत व मुनाफे में फंसे उत्पादक
घटते रुझान का सबसे बड़ा कारण है कि उत्पादक अब लागत व मुनाफे में फंस गए हैं। पहले-पहले बढि़या बीज मिलता था और खाद सस्ती थी, जिससे 50 रुपये प्रतिकिलो तक के दाम में उत्पादकों को मुनाफा होता था। अब जबकि मशरूम के दाम 80-90 रुपये प्रतिकिलो हो गए हैं फिर भी महंगी खाद, घटिया बीज और अनुदान की कमी से उत्पादकों को घाटा हो रहा है। इससे औसत उत्पादन भी घट गया है और प्रति बैग लगभग तीन किलो उत्पादन घटकर डेढ़-पौने दो किलो रह गया है। यहां केवल दो-तीन उत्पादकों के पास ही मशरूम के एसी प्लांट हैं, जबकि बाकी लोग मौसम के हिसाब से फसल लेते हैं।
डीएमआर सफेद हाथी, उद्यानिकी विभाग में फंड नहीं
सोलन स्थित मशरूम अनुसंधान निदेशालय (डीएमआर) अब सफेद हाथी बनता जा रहा है और यहां के उद्यानिकी विभाग के पास फंड नहीं, जिससे उत्पादकों को फायदा हो। सोलन में बटन मशरूम ही अधिक पैदा हो रही है, जबकि एक फीसदी लोग डिंगरी मशरूम लगा रहे हैं। इसके अलावा डीएमआर ने ऋषि व मिल्की मशरूम की प्रजातियां तैयार की थी, जिसका यहां उत्पादन ही नहीं हो रहा। मशरूम की मुख्य बीमारी गीला बुलबुला का भी निदेशालय के पास कोई तोड़ नहीं, जिससे उत्पादकों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। यही नहीं यहां के उद्यानिकी विभाग को सरकार की ओर से फंड नहीं मिल पाते, जिससे वह किसानों की सहायता में असमर्थ है। विभाग में बरसों पुराना खाद सयंत्र है, जिसे बदलने व अन्य कार्यो के लिए ऊपर से पैसा नहीं मिल रहा।
छोटे स्तर पर अनुदान का प्रावधान नहीं : धीमान
मशरूम विकास अधिकारी एमएल धीमान ने कहा कि मशरूम उत्पादन को कृषि कार्य घोषित करना सरकार पर निर्भर करता है। सोलन में किसान इस कार्य को छोटे-छोटे स्तर पर कर रहे हैं, जिन्हें अनुदान का प्रावधान नहीं। दूसरी तरफ जिन लोगों ने उद्योग की तर्ज पर मशरूम प्लांट लगाए हैं, उन्हें उद्योगों के फायदे मिल रहे हैं।
'मशरूम सिटी ऑफ इंडिया' के नाम से मशहूर सोलन में मशरूम उत्पादन दम तोड़ने लगा है। देश को मशरूम से बने शाही पकवानों की सौगात देने वाले सोलन में इसकी पैदावार कम हो रही है। दुख यह कि 'खुंब नगरी' के तमगे को सहेजने में राज्य सरकारें असफल रही हैं। अब नगरी तो है लेकिन खुंब गायब हो रही है।
क्या है कारण
हिमाचल प्रदेश में मशरूम उत्पादन को कृषि कार्य घोषित न करने और इसके लिए विभागीय अनुदान सहित विपणन व्यवस्था न होने से मांग व उत्पादन में भारी अंतर आया है। इसका परिणाम है कि पहले सोलन के घर-घर में मशरूम की खेती होती थी, अब लोग हाथ खींचने लगे हैं। वर्तमान में हरियाणा अधिक उत्पादन के कारण मशरूम राज्य बनने की ओर अग्रसर है, वहां इसे कृषि कार्य घोषित किया गया है। इसके अलावा पंजाब, उत्तर प्रदेश व जम्मू-कश्मीर सहित कई राज्यों में मशरूम उत्पादन को कृषि का दर्जा प्राप्त है।
महाराजा पटियाला विदेश से लाए थे स्पॉन
सबसे पहले महाराजा पटियाला मशरूम स्पॉन (खुंब का बीज) विदेश से यहां लाए थे। उन्होंने चायल के समीप दोची स्थित अपने फार्म हाउस में मशरूम उगाना शुरू किया और बाद में इसकी सप्लाई भी की जाने लगी। इसके बाद 60 के दशक में सोलन से मशरूम को पहचान मिली और इससे बने व्यंजन गरीब की रसोई से लेकर बड़ी दावतों तक की शान बने। उस समय यहां पर एग्रीकल्चर कॉलेज में मशरूम उत्पादन की जानकारी दी जाती थी।
1997 में बनी 'मशरूम सिटी ऑफ इंडिया'
मशरूम उत्पादन के लिए सोलन का मौसम अनुकूल होने, साल में कई फसलें निकलने और इससे मिलने वाले तगड़े मुनाफे के कारण इसके प्रति लोगों का रुझान बढ़ा। एक समय वह भी आया जब सोलन के घर-घर में मशरूम उत्पादन शुरू हो गया। बाद में यहां पर मशरूम के राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र की स्थापना की गई, जिसे अब निदेशालय बना दिया गया है। सोलन में मशरूम पर हो रहे अनुसंधान व पैदावार के चलते 10 सितंबर 1997 को सोलन को 'मशरूम सिटी ऑफ इंडिया' का दर्जा मिला।
कृषि कार्य नहीं माना
1997 में केंद्र सरकार ने सभी राज्यों के विभागीय मुख्य सचिवों को मशरूम उत्पादन को कृषि कार्य की मान्यता देने के लिए पत्र लिखे थे। इस पर केवल तीन-चार राज्यों ने ही इसे कृषि कार्य के रूप में अपनाया, जबकि हिमाचल में इसे आज भी उद्योग के रूप में देखा जाता है। यहां पर किसान छोटे स्तर पर ही मशरूम उत्पादन करते हैं, जिससे वह विभागीय अनुदान व अन्य सुविधाओं से भी वंचित हैं। मशरूम प्लांट के लिए बिजली मीटर भी व्यावसायिक दर पर लगते हैं और उत्पादकों को महंगे दामों पर बीज व उपकरण खरीदने पड़ते हैं। विपणन की भी व्यवस्था नहीं है और उत्पादकों को तैयार माल बेचने का खुद इंतजाम करना पड़ता है।
उत्पादन कम मांग ज्यादा
मौजूदा समय में सोलन में प्रतिदिन लगभग चार क्विंटल मशरूम उत्पादन हो रहा है, जबकि मांग आठ क्विंटल से भी ज्यादा है। ऐसे में डिमांड पूरी करने के लिए यहां के बड़े उत्पादक बाहरी क्षेत्रों से मशरूम खरीद कर आगे सप्लाई कर रहे हैं, जबकि पहले यही उत्पादन आठ से दस क्विंटल होता था। इस व्यवसाय से जुड़े करीब सौ उत्पादकों की मांग है कि मशरूम निदेशालय सहित नौणी यूनिवर्सिटी और उद्यानिकी विभाग समय पर उन्हें बढि़या बीज उपलब्ध करवाए व खाद भी पर्याप्त मिले।
लागत व मुनाफे में फंसे उत्पादक
घटते रुझान का सबसे बड़ा कारण है कि उत्पादक अब लागत व मुनाफे में फंस गए हैं। पहले-पहले बढि़या बीज मिलता था और खाद सस्ती थी, जिससे 50 रुपये प्रतिकिलो तक के दाम में उत्पादकों को मुनाफा होता था। अब जबकि मशरूम के दाम 80-90 रुपये प्रतिकिलो हो गए हैं फिर भी महंगी खाद, घटिया बीज और अनुदान की कमी से उत्पादकों को घाटा हो रहा है। इससे औसत उत्पादन भी घट गया है और प्रति बैग लगभग तीन किलो उत्पादन घटकर डेढ़-पौने दो किलो रह गया है। यहां केवल दो-तीन उत्पादकों के पास ही मशरूम के एसी प्लांट हैं, जबकि बाकी लोग मौसम के हिसाब से फसल लेते हैं।
डीएमआर सफेद हाथी, उद्यानिकी विभाग में फंड नहीं
सोलन स्थित मशरूम अनुसंधान निदेशालय (डीएमआर) अब सफेद हाथी बनता जा रहा है और यहां के उद्यानिकी विभाग के पास फंड नहीं, जिससे उत्पादकों को फायदा हो। सोलन में बटन मशरूम ही अधिक पैदा हो रही है, जबकि एक फीसदी लोग डिंगरी मशरूम लगा रहे हैं। इसके अलावा डीएमआर ने ऋषि व मिल्की मशरूम की प्रजातियां तैयार की थी, जिसका यहां उत्पादन ही नहीं हो रहा। मशरूम की मुख्य बीमारी गीला बुलबुला का भी निदेशालय के पास कोई तोड़ नहीं, जिससे उत्पादकों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। यही नहीं यहां के उद्यानिकी विभाग को सरकार की ओर से फंड नहीं मिल पाते, जिससे वह किसानों की सहायता में असमर्थ है। विभाग में बरसों पुराना खाद सयंत्र है, जिसे बदलने व अन्य कार्यो के लिए ऊपर से पैसा नहीं मिल रहा।
छोटे स्तर पर अनुदान का प्रावधान नहीं : धीमान
मशरूम विकास अधिकारी एमएल धीमान ने कहा कि मशरूम उत्पादन को कृषि कार्य घोषित करना सरकार पर निर्भर करता है। सोलन में किसान इस कार्य को छोटे-छोटे स्तर पर कर रहे हैं, जिन्हें अनुदान का प्रावधान नहीं। दूसरी तरफ जिन लोगों ने उद्योग की तर्ज पर मशरूम प्लांट लगाए हैं, उन्हें उद्योगों के फायदे मिल रहे हैं।
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